Thursday, February 11, 2010

मदहोशी में मुहब्बत

मय जब दिमाग पर सवार हो और ख्यालों में मुहब्बत तो महज़ दो मिनट चालीस सैकेंड में शायरी के नाम पर क्या लिखा जा सकता है.....ये कल रात मैंने जाना। यकीन मानो ठीक दो मिनट और चालीस सैकेंड :-)

कौन सी कसक कब, कहां उठती है
किसे देखकर वो मदहोश निगाह झुकती है
ख्यालों से किसके हो जाते हैं बेचैन
धड़कन किसके इशारे पे चलती, ऱुकती है.....

ये तो दीवानगी भी नहीं जानती
कि वो किसके आगोश में रहती है
'अहसास' बस मुहब्बत का मारा है
ये मेरी हर सांस कहती है......

तूने किसे चाहा किसे इस्तेमाल किया
ये तो तेरी मुहब्बत को पता है
जो किसी का हो न सका कभी
वो भी तेरी इक निगाह में बंधा है.....

कौन सी कसक कब, कहां उठती है
किसे देखकर वो मदहोश निगाह झुकती है......

मैंने सोचा कि चाहत को तेरी
अपनी ज़िंदगी की तस्वीर बना लूं
तेरे मुकद्दर की हर आवाज़ को
अपनी हकीकत की तकदीर बना लूं......

मेरे दर पे इक फ़रियादी हमेशा ही रहा
जिसने तेरी चाहत को मुझसे मांग लिया
मैं देने में कभी भी कम न था
और वो मुझसे मांगता ही रहा.....

एक दिन बस यूं ही सोच रहा था मैं
कि मुहब्बत में किसकी है कितना नशा
उसकी निगाहों ने ये पूछा मुझसे
क्या चाहता हूं मैं तुम्हें उसी की तरह.....

मेरी निगाह शर्म से झुक सी गई
मेरे वकूफ़ ने मुझे इशारा भी किया
मैंने फिर खुद से वही पूछा......

कौन सी कसक कब, कहां उठती है
किसे देखकर वो मदहोश निगाह झुकती है
ख्यालों से किसके हो जाते हैं बेचैन
धड़कन किसके इशारे पे चलती, ऱुकती है......

1 comment:

Manu Dhanda said...

यहाँ महत्त्व २ मिनट ४० सेकंड को नहीं, दिमाग में चल रहे उस उफान को देना चाहिए था जिसको पढ़ कर शायद पढने वाला ये समझ पाता कि आखिर लिखने वाले कि क्या भावनाएं रही होंगी | कविता के शुरू में ही वक़्त पढ़ कर कविता के लिए पाठक की रुचि कम हो जाती है | किसी को भी अपनी भावनाएं लिखने में वक़्त नहीं लगता, और एक यही सच तुम्हारी कविता में भी है| पर हर कोई लेखक की भावना को समझना चाहता है, ना की वक़्त को|