Saturday, November 10, 2007

यादों का नासूर...........

ज़ख्म दिया था जो तूने, नासूर हो चला है।
तू थी तो होश में था, अब सुरूर हो चला है।
बावकूफ़ बेशक तू किसी और की हो महबूबा।
मगर दिल तेरे प्यार में मजबूर हो चला है।

तेरी यादें जीने का सहारा अब हो चुकी शायद
मुहब्बत की ख्वाहिशें कहीं खो चुकी शायद
तेरे हुस्न तेरे अंदाज़ से महकती थी जो शामें
हर वो शाम, वो लम्हा, मुझसे दूर हो चला है।

तू थी तो होश में था, अब सुरूर हो चला है।
ज़ख्म दिया था जो तूने, नासूर हो चला है..........................


कभी कभी उसे याद करता हूँ तो दिल में लोगों के हज़ारों सवाल आते हैं जिनके जवाब मैं बरसों तलाशता रहा.................

लोग कहते हैं कुछ कमी थी तुझमें
मगर दिल ये मानने को तैयार नहीं।
पूछ लूं तुझसे कि क्या कमी थी मुझमें
मगर आज इतना भी मुझे इख्तियार नहीं।