सोचता हूं तुमको तो बहुत मजबूर होता हूं।
तुम्हारे पास होकर भी मैं तुमसे दूर होता हूं।
अपने हाथों से तुम्हें छू तो नहीं सकता
मगर ग़म की हर शाम तेरे ख़यालों में खोता हूं।
मेरी किस्मत, मेरी मुहब्बत और मेरी ख़्वाहिश
इन मोतियों को जब एक माला में पिरोता हूं।
तू कितनी ख़ूबसूरत दिखेगी इन मोतियों की माला में
आखों में ये सपना रोज़ ले के सोता हूं।
तूने तो एक आंसू ना बहाया होगा कभी मेरी ख़ातिर
दिल में तेरी याद लिए मैं रोज़ रोता हूं
सोचता हूं तुमको तो ............
Tuesday, August 7, 2007
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